चोटी की पकड़–6

बुआ पसीने-पसीने हो गईं।


 कोई नहीं उठीं, उनकी बहू को भी यह सीख नहीं दी गई।

 पद की मर्यादा सर हो गई। चुपचाप दो रुपए निकाले और बहू की निछावर करके मुन्ना को देने के लिए हाथ बढ़ाया। 

मुन्ना घबराकर उन्हें देखने लगी। लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। यह रानी साहिबा का अपमान था।

रानी साहिबा देखती रहीं। चौकी की तरफ उँगली उठाकर बंगला में बैठने के लिए कहा।

बुआ को यह और बड़ा अपमान जान पड़ा। 

आसन नीचा था। उनकी नसों में बिजली दौड़ने लगी। वह द्रुत पद से मसनद के सिरहाने की तरफ गईं और तकिए के पास बैठकर रानी साहिबा की आँख से आँख मिलाते हए कहा, "समधिन, हम वहाँ नहीं बैठेंगे।

 वह जगह तुम्हारी है। अगर बड़प्पन का इतना बड़ा अभिमान था तो गरीब का लड़का क्यों चुना?" रानी साहिबा का पानी उतर गया।

 अपमान से बोल बंद हो गया। 

क्षमा उनके शास्त्र में न थी। दाँत पीसकर आधी बंगला आधी हिंदी में कहा, "तुम्हारा नाक पर क्या है, तुम्हारा गाल पर किसका दाग है?"

"यहीं की तरह औरत पर हुए अपमान के दाग हैं।

 लेकिन हमारा चेहरा तुम्हारे दामाद से मिलता-जुलता भी है?

 -जैसा हमारा, हमारे भाई का, वैसा ही उसका; वह चेहरा भी ब्याह से पहले तुम लोगों को कैसे पसंद आ गया?"

रानी साहिबा पर जैसे घड़ों पानी पड़ा। राजकुमारी झेंपकर उठकर चल दीं। शोर-गुल होते ही कई दासियां दौड़ीं।

 रानी साहिबा ने बुआ को उसी वक्त ले जाने की आज्ञा दी।

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